Thursday 9 November 2017

धुंधली होती त्योहारों की चमक



मुझे अच्छी तरह से याद है , जब हम छोटे थे तो 10-15  दिन पहले या कभी-कभी तो एक महीने पहले से हीं दीवाली, होली मनाना शुरू कर देते थे. बड़े, बच्चों  यहां तक की बुजुर्गों में भी एक अलग तरह का उत्साह और उल्लास देखने को मिलता था. चैत और फागुन के महीने में गाओं में लोग चैता और फगुआ गाना शुरू कर उन महीनों का स्वागत करते थे. होली, दीवाली, छठ में वो लोग भी थोड़ा पहले जाते जो कि कहीं किसी शहर में एक बेहतर जिन्दगी की तलाश में काम करते थे. धीरे-धीरे वक्त बीतता गया और अब तो चैत और फागुन के गीतों की आवाज भी धीमी होती चली गयी है या यूं कहें की लगभग गायब ही हो गयी है. दीवाली के दीयों और मोमबत्तियों की जगह चाइनीज फुलझड़ियों ने ले ली है. त्योहारों में शहर से गाओं में लोगों का आना भी लगभग ख़तम सा हीं हो चुका है.

           सवाल यह है की क्यूँ? क्यूँ  हमारे त्योहारों की चमक धुंधली होती जा रही है? अब वो उल्लास और उत्साह हमारे मन में क्यूँ नहीं है? क्यूँ लोगों का शहर से गांव आना कम हो गया है?


शायद भाग-दौड़! चाहे शहर हो या गांव हर कोई बस भाग रहा है एक बेहतर कल के लिएलोगों के पास क्या वाकई में वक्त नहीं है या लोग निकालना नहीं चाहते या यूं कहें कि हम अपनी हीं जड़ो को भूलते जा रहे हैं

धुंधली होती त्योहारों की चमक

मुझे अच्छी तरह से याद है , जब हम छोटे थे तो 10-15  दिन पहले या कभी - कभी तो एक महीने पहले से हीं  दीवाली , होली मना...